उम्मीद पोर्टल पर वक्फ संपत्तियों का पंजीकरण जिस तरह से अव्यवस्थित और सुस्त गति से चल रहा है, वह एक साधारण तकनीकी समस्या से कहीं अधिक बड़ी कहानी कहता है। यह केवल एक वेबसाइट के धीमे होने का मुद्दा नहीं बल्कि यह एक समुदाय के विश्वास, उसकी ऐतिहासिक संपत्तियों और उसकी नागरिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ प्रश्न बन चुका है। जब सरकारें पारदर्शिता और डिजिटल क्रांति का दावा करें और उसी सरकार के एक महत्वपूर्ण पोर्टल की हालात इतनी बुरी हो कि लोग रातों-रात दस्तावेज़ अपलोड करने की कोशिश में थककर चूर हो जाएँ, तो कहीं न कहीं प्रश्न उठना ही है: यह तकनीकी गड़बड़ी है, या किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा?
उम्मीद पोर्टल पर लाखों वक्फ संपत्तियों का डेटा जमा होना है।जमीन, मस्जिदें, कब्रिस्तान, मदरसे, इमारतें, दूकानें, ट्रस्ट, दान और सामुदायिक संसाधन। यह भारत की मुसलमान आबादी की ऐतिहासिक, धार्मिक और सामाजिक पूँजी है। ऐसी संपत्तियाँ जिन्होंने सौ साल से अधिक समय में भी अपना कानूनी और सामाजिक महत्व नहीं खोया। अचानक जब इन्हें डिजिटल रूप से दर्ज करने की प्रक्रिया शुरू की गई, तो यह एक सकारात्मक कदम माना जा सकता था, यदि पूरा सिस्टम पारदर्शी, न्यायोचित और समय-सीमा युक्त होता।
लेकिन वास्तविकता उलट है। पोर्टल दिन भर अटकता है, लॉगिन नहीं होता, दस्तावेज़ अपलोड नहीं होते, और पेज रिफ्रेश होते-होते टाइम-आउट हो जाता है। इस अव्यवस्था की पृष्ठभूमि में सबसे बड़ा सवाल यह है कि दूसरे सरकारी पोर्टल, चाहे वह आधार हो, राज्य सेवाएँ हों, टैक्स पोर्टल हो या जन-सुविधा प्लेटफ़ॉर्म ये सब सामान्य रूप से काम करते रहते हैं वैसे हालात में जब सिर्फ एक पोर्टल बंद हो, और वह भी उसी समय जब उसकी आवश्यकता सबसे अधिक हो, तो तकनीकी खराबी की सामान्य व्याख्या कमजोर पड़ जाती है।
यही अनुभव समुदाय के भीतर एक आशंका को जन्म देता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पोर्टल को जानबूझकर इतना कमजोर रखा गया है कि पर्याप्त संख्या में संपत्तियाँ दर्ज न हो सकें? यदि बड़ी संख्या में रिकॉर्ड ऑनलाइन न चढ़ पाएँ, तो आगे चलकर उन संपत्तियों पर "असत्यापित", "संदिग्ध" या "रिकॉर्ड नहीं मिलने" जैसी शिक़ायतें खड़ी की जा सकेँगी। और यह आशंका हवा में नहीं बनी हैबल्कि बीते कई वर्षों में जिस तरह से कानूनी प्रक्रियाएँ, नागरिकता से जुड़े विवाद, और भूमि/संपत्ति नियमों का इस्तेमाल समुदायों पर दबाव बनाने के लिए किया गया, उसने लोगों के मन में व्यवस्था के प्रति भरोसा लगभग समाप्त कर दिया है।
आज जो लोग उम्मीद पोर्टल का उपयोग कर रहे हैं, वे केवल नागरिक नहीं बल्कि वे वक्फ के संरक्षक हैं। उनके पास सीमित साधन हैं, सीमित तकनीकी पहुँच है, और समय भी सीमित है। जब टाइम-लाइन अव्यावहारिक रूप से छोटी हो, और सर्वर अविश्वसनीय रूप से धीमा हो, तो यह कहना कि "तकनीकी दिक्कत है, धैर्य रखें" जो एक संवेदनहीन सलाह बन जाती है।
सरकार को यह समझना चाहिए कि जनता का विश्वास आदेश से नहीं, अनुभव से पैदा होता है। यदि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर डेटा जमा करने के लिए लोग रातभर जागने पर मजबूर हों, और फिर भी सिस्टम आगे न बढ़े, तो यह "डिजिटल इंडिया" का विफल चेहरा बन जाता है और मुस्लिम समुदाय के लिए यह विफलता केवल तकनीकी नहीं, बल्कि अस्तित्व से जुड़ा भय बन जाती है।
अगर सरकार आरोपों से बचना चाहती है कि वक्फ संपत्तियों को संदिग्ध बनाने की कोई सुनियोजित कोशिश चल रही है, तो उसे तुरंत और स्पष्ट कदम उठाने होंगे। पोर्टल के सर्वर बढ़ाए जाएँ, तकनीकी टीम को मजबूत किया जाए, और सबसे महत्वपूर्ण यह कि समय सीमा में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की जाए। इसके साथ ही यह बताया जाए कि पोर्टल किसने विकसित किया, इसके डेटा सुरक्षा मानक क्या हैं, और समुदाय के हितों की सुरक्षा के लिए क्या निगरानी तंत्र मौजूद है। पारदर्शिता केवल एक औपचारिकता नहीं बल्कि यह इस समय विश्वास बहाल करने का आधार है।
उम्मीद पोर्टल आज एक साधारण वेबसाइट से आगे बढ़कर एक प्रतीक बन गया है।एक परीक्षण कि राज्य सचमुच सभी समुदायों के साथ निष्पक्ष है या नहीं। यह केवल संपत्ति पंजीकरण का मामला नहीं; यह सम्मान, विश्वास और बराबरी के अधिकार का प्रश्न है। यदि यह प्रक्रिया न्यायपूर्ण नहीं हुई, तो यह देश की अल्पसंख्यक आबादी के साथ एक और अविश्वास का अध्याय जोड़ देगी।
उम्मीद की शुरुआत डिजिटल थी । अभी तक तो लोगों को सरकार की नीयत पर शक था कहीं यह शक यकीन में न बदला जाये।
