1947 जब देश आजाद हुआ था। नई नवेली सरकार और उनके मंन्त्री देश की रियासतों को आजाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए परेशान थे।
लगभग *562 रियासतों* को भारत में मिलाने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अपना कर अपनी कोशिश जारी रखे हुए थे। *क्योंकि देश की सारी संपत्ति इन्हीं रियासतों के पास थी।*
कुछ रियासतों ने नखरे भी दिखाए, मगर कूटनीति और चतुरनीति से इन्हें आजाद भारत का हिस्सा बनाकर भारत के नाम से एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना की *और फिर देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले संप्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गई।*
धीरे धीरे रेल, बैंक, कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक शक्तिशाली भारत का निर्माण हुआ ।
निजीकरण का कई तर्क दिया जाता है उनमें से एक प्रमुख है कि कर्मचारी काम नहीं करते, चलिए मान लिया कि सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते उनमें कुछ कामचोर और बेईमान भी होते हैं लेकिन घर में कुछ लोग निकम्मे हो जाएं तो क्या घर की व्यवस्था गाँव के दुकानदारों के हाथों में सौंप देनी चाहिए? मेरा प्रश्न उन विद्वानों से हैं जो मदमस्त होकर निजीकरण की पैरोकारी करने में लगे हैं, इन विद्वानों को शायद यह एहसास नहीं है कि जब देश में दो वक्त की रोटियों की भी व्यवस्था नहीं थी तब देश की जनता ने अपने पेट पर पट्टियां बाँधकर यह सरकारी ढाँचा खड़ा किया होगा, भूदान आंदोलन चलाकर लोगों ने सरकारी संस्थाओं को खड़ा करने के लिए जमीनें दान दी थीं, आज सरकारी रेलगाड़ी की वजह से आम आदमी भी यात्रा कर लेता है, आयुर्विज्ञान संस्थान, मेडिकल कॉलेज एवं सरकारी अस्पतालों की वजह से जीवन बचा लेता है, आईआईटी और आईआईएम से निकलकर बड़ा आदमी बनने की राह बना लेता है, प्राईमरी स्कूल से लेकर उच्च शिक्षण संस्थाओं तक बहुत कम फीस में पहुँच जाता है, इनके अलावा बहुत उदाहरण हैं लेकिन समझनें के लिए यह पर्याप्त हैं, अपने पूर्वजों के खून पसीने से बने देश की चाबी निजीकरण के नाम पर कुछ अमीरजादों के हाथों में सौंपी जा रही है ।
मात्र 70 साल में ही बाजी पलट गई। जहाँ से चले थे उसी जगह पहुंच रहे हैं हम। फर्क सिर्फ इतना कि दूसरा रास्ता चुना गया है और इसके परिणाम भी ज्यादा गम्भीर होंगे।
लाभ और मुनाफे की विशुद्ध वैचारिक सोच पर आधारित ये राजनीति देश को फिर से 1947 के पीछे ले जाना चाहती है। *यानी देश की संपत्ति पुनः रियासतों के पास.......!*
*लेकिन ये नए रजवाड़े होंगे कुछ पूंजीपति घराने और कुछ बड़े बडे राजनेता ।*
*निजीकरण की आड़ में पुनः देश की सारी संपत्ति देश के चन्द पूंजीपति घरानो को सौंप देने की व्यवस्था की जा रही है।* उसके बाद क्या होगा ..?
निश्चित ही लोकतंत्र का वजूद खत्म हो जाएगा। देश उन पूंजीपतियों के अधीन होगा जो परिवर्तित रजवाड़े की शक्ल में सामने उभर कर आयेंगे। *शायद रजवाड़े से ज्यादा बेरहम और सख्त।*
मेरे विवेकानुसार निजीकरण सिर्फ देश को 1947 के पहले वाली दौर में ले जाने की सनक मात्र है। जिसके बाद सत्ता के पास सिर्फ लठैती करने का कार्य ही रह जायेगा।
*सोचकर आश्चर्य होता है कि 562 रियासतों की संपत्ति मात्र चन्द पूंजीपति घरानो को सौंप दी जाएगी।*
ये पूंजीपति मुफ्त इलाज के अस्पताल, धर्मशाला या प्याऊ नहीं बनवाने वाले। *जैसा कि रियासतों के दौर में होता था। ये हर कदम पर पैसा उगाही करने वाले अंग्रेज होंगे।*
*निजीकरण एक व्यवस्था नहीं बल्कि पुनः रियासतीकरण है।*
कुछ समय बाद नव रियासतीकरण वाले लोग कहेगें कि देश के *सरकारी अस्पतालों, स्कूलों, कालेजों से कोई लाभ नहीं है अत: इनको भी निजी हाथों में दे दिया जाय तो जनता का क्या होगा ?*
पार्टी फण्ड में गरीब मज़दूर, किसान पैसा नहीं देता है। पूंजीपति देता है। और *पूंजीपति दान नहीं देता, निवेश करता है।* चुनाव बाद मुनाफे की फसल काटता है।
यदि निजीकरण का यह दौर चल पडा तो वह दिन दुर नहीं जब हम पीढ़ी दर पीढ़ी बन्धुआ मजदूर बनकर रह जायेंगें।
जय हिन्द।
*यह लेख निज विचार है, किसी व्यक्ति विशेष, पार्टी या सरकार का विरोध करना या उन्माद फैलाना इसका उद्देश्य नहीं है ।*
- प्रदीप कुमार पाण्डेय
सहादतपुरा, मऊ