देश में लाखों युवा गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों के ऐसे हैं जिनके मां बाप बहुत ही निर्धन और अभावग्रस्त जीवन यापन कर रहे होते हैं, उनमें कुछ दिहाड़ी मजदूर हैं तो कोई रेहड़ी पटरी पर ठेले खोमचे लगाकर परिवार पालन पोषण में लगे लोग हैं, कुछ सीमांत एवं लघु किसान हैं। जो अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए अपना और अपने परिवार के सदस्यों का पेट काटकर देश के विभिन्न शहरों में शिक्षा ग्रहण कर विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी कर रहे अपने बेटे को फीस कापी किताब,राशन, कमरे का किराया जुटाकर भेजते हैं। उनका सपना होता है कि सरकार रोजगार के लिए विज्ञापन निकाले और परिक्षा देकर बेटा कहीं नौकरी पाकर अपने पैरों पर खड़ा हो सके। मां बाप के लम्बे सपने होते हैं, लेकिन वे सपने चकनाचूर होते हैं तो जीना मुश्किल हो जाता है। परीक्षा की तैयारी में लगा बेटा जब घर पर फ़ोन लगाकर बात करते वक्त कहते हैं पैसे की मांग करते हैं और परिजन पैसा न भेजने की मजबूरी जताते हैं तब बेटा या बेटी यह बोलते हैं कि मम्मी या पापा, बस दो महीने और रहने दीजिए, उसके बाद फलां परीक्षा को निकालकर सेटल हो जाऊंगा। फिर पैसा भेजने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन दुर्भाग्य देखिए। एक के बाद एक परीक्षा रद्द होती जा रही। अब बेटा घर पर फोन करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। कह नहीं पा रहा कि पापा सब सही हो जाएगा। वो टूट गया है। मन हार गया है। रो रहा है। लेकिन किसी से कुछ कह नहीं पा रहा। जो बड़ी और ऊंची कुर्सियों पर बैठकर पेपर लीक करवा रहे वह इस वक्त के सबसे बड़े राक्षस हैं। उन्हें इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं कि गांव में 3-4 सौ रुपए की दिहाड़ी करने वाला किस तरह से अपने बेटे को पैसा भेज रहा होगा। न बेटा सही से खा पा रहा है ना मां बाप या परिवारीजन। मैंने इन चीजों को एकदम नजदीक से देखा है। या कहें भोगा है। 1-1 रुपए खर्च के लिए भी सोचना पड़ता है। कमरे का किराया देने के बाद 1000 रुपए में महीना बिताना आसान बात होती है क्या? हे सरकार, कुछ करिए। जो परीक्षा लीक करवा रहे वह पहली बार नहीं करवा रहे। इसके पहले भी उनका नाम सामने आ चुका है। अगर उस वक्त उनका सही इलाज हो जाता तो आज यह नौबत नहीं आती। जो पहले नहीं किया, वह अब करिए। अपने गांव गिरगांव शहर मुहल्ले के युवाओं को टूटकर, रोता हुए देखने की हिम्मत मुझमें नहीं है।
सौजन्य से निसार अहमद रतनपुरा